19.1.10

व्यंग्य : ओ मंहगाई महारानी तेरा जबाब नहीं ....

ओ मंहगाई की देवी महारानी तुम्हें क्या कहूँ तेरी महिमा अपरम्पार हैं . तू कहाँ से आई कब कहाँ दस्तक दे दे तेरा कोई ठिकाना नहीं है और जहाँ तेरे चरण पड़ जाए वहां त्राहि त्राहि मच जाती है . तुझे यदि सुरसा की बहिन कहूं तो कोई दिक्कत की बात नहीं है क्योकि तू ऐसे ही है .

सुरसा के सामान बढ़ती जाती हो पर कभी घटने का नाम ही नहीं लेती हो . तेरी मार से गरीब आदमी त्राहि त्राहि कर रहा है वो बेचारा कितनी ही मेहनत करे पर तेरे कारण वह दो जून की रोटी के लिए तरस रहा है . बस अब यह लगता है की मंहगाई की हे देवी महारानी तू सिर्फ भ्रष्टाचरियो , रिश्वतखोरों और जमाखोरों के ऊपर ही मेहरबान हैं जो दिन रात दुगुने के चौगुने कर रहे है .

देश के सरकारी नेता भी तेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाते हैं . देखो न बीस की शक्कर चालीस के मुहाने पर और गरीबो की दाल नब्बे के मुहाने पर बैठी है . तेरे कारण हालात ये हो गए हैं की आने वाले समय में लोग बाग़ ये चीजें खायेंगे नहीं सूंघ कर अपना काम चला लिया करेंगे .

देश के शीर्ष नेताओं के साथ लगता है तुम्हारी कोई सेटिंग हैं जिसके चलते तुम्हारा कोई उखाड़ नहीं सकता है .... हाल में आवश्यक जीवन उपयोगी वस्तुओ के मूल्यों में जो धुआधार वृद्धि हुई है वो सब जीते जागते प्रमाण हैं . लगता है सब कमीशनबाजी का चक्कर है .

बड़े बड़े मंत्री बड़े बड़े भाषण पेलते हैं और कृषि मंत्री( हांलाकि उनकी मूंछे नहीं हैं) भी अपनी मूंछो पर ताव फेरते हुए कहते हैं की एक सप्ताह के अन्दर मंहगाई घट जायेगी . शक्कर बत्तीस के भाव से विदेश से मंगवाकर जनता को पुजाई जायेगी ..... पर ये निश्चित हो गया है मंहगाई रानी की शक्कर २२ रुपये प्रति किलो की जगह अब ३५ रुपये प्रति किलो के रेट से आगे बिकेगी पर २२ के रेट फिर वापस नहीं जायेगी ये सब तेरी मेहरबानी है.

हे मंहगाई तेरी महिमा अपरम्पार है देखो न तुम्हारे नाम पर सेमीनार, भाषण बाजी, बड़े बड़े आन्दोलन होते हैं और तो और स्कूलों में बच्चो से मंहगाई विषय को लेकर निबंध लिखवाये जाते है . लोग तुझे कम करने के लिए भूख हड़ताल करते है और भूखो रहकर खुद बेचारे दुबले हो जाते है . धरना प्रदर्शन करने वाले खुद धर लिए जाते है ..... कुल मिलाकर ये कहें हे मंहगाई के देवी महारानी ये सभी अभी तक तेरे खिलाफ बौने साबित हो रहे हैं और ढांक के पांत साबित हो रहे हैं . ओ मंहगाई की देवी तेरी जय हो .

व्यंग्य आलेख -
महेंद्र मिश्र
जबलपुर.