5.5.20

अपने बच्चों को संस्कारवान बनायें ...

बच्चों की प्रथम पाठशाला परिवार ही होता है और परिवार से बच्चों को अच्छे और बुरे संस्कार मिलते हैं । बच्चों को परिवार का वातावरण उन्हें प्रभावित करता हैं वे जिस वातावरण में रहते हैं उसी के अनुरूप ढल जाते हैं ।   एक बार एक माँ अपने बच्चे को बुरी तरह से पीट रही थी ।  पड़ोस की एक महिला ने देखा कि वह महिला अपने छोटे से बच्चों को पीट रही है यह देख कर उससे रहा न गया और उसने दौड़कर बच्चे को बचा लिया फिर उसने बच्चे की माँ से पूछा कि  इस बच्चे को तुम बुरी तरह से क्यों पीट रही हो । बच्चे की मां ने पड़ोस की महिला को बताया की आज इसने चोरी की है और मंदिर की दानपेटी से इसने रुपये पैसे चुराए है  और बच्चे की इस हरकत से उसे गुस्सा आ गया है  इसीलिए वह अपने बच्चे को पीट रही है । बच्चे से पड़ोस की महिला ने बड़े प्यार से पूछा और कहा अरे तुम तो बहुत अच्छे बच्चे हो गंदे बच्चे चोरी करते हैं ।

बच्चे ने पडोसी महिला को बताया कि मेरी मां भी चोरी करती है  और मेरी माँ प्रतिदिन  मामा के यहाँ जो दूध आता है उसमें से आधा दूध निकाल लेती हैं और दूध में आधा पानी मिला देती है यह चोरी नहीं है तो क्या  है  और मुझ से कहती है कि ये सब मामा को नहीं बताना । बच्चे ने पड़ोसी महिला को बताया कि उसने पहली बार मंदिर की दानपेटी से रुपये पैसों की चोरी की है । यह सब सुनकर बच्चे की मां हतप्रद हो गई और उससे फिर कुछ कहते नहीं बन पड़ा ।

यदि हम अच्छे संस्कार और अच्छे गुण अपने बच्चों को देना चाहते हैं तो सबसे पहले हमें और परिवार जनों को  अच्छे गुण और संस्कार खुद धारण करना चाहिए । आपके अच्छे गुण और अच्छे  संस्कार को देख कर बच्चे अच्छे संस्कार और अच्छे गुण ग्रहण करते हैं । परिवार ही बच्चों की प्राथमिक पाठशाला है जहाँ से बच्चे अच्छे और बुरे संस्कार ग्रहण करते हैं ।  आप संस्कारवान बनें और अपने बच्चों को भी संस्कारवान बनाएं जिससे और समाज भी संस्कारवान बन सकें ।  

4.5.20

लगातार संघर्ष करने से सफलता अर्जित होती है ....

महाभारत में भीषण युद्ध चल रहा था । युद्द भूमि में गुरु और शिष्य आमने सामने थे । दुर्योधन की तरफ से द्रोणाचार्य और पांडवों की ओर से अर्जुन युध्द के मैदान में खड़े थे । अर्जुन को द्रोणाचार्य ने धनुष विद्या सिखाई थी और द्रोणाचार्य अर्जुन के समक्ष युध्द के मैदान में असहाय दिख रहे थे ।

कौरवों ने अपने गुरु द्रोणाचार्य से कहा - आप तो अर्जुन से युद्द हार रहे हैं और आपका शिष्य जीत रहा है तो द्रोणाचार्य ने कहा - मुझे राजसुख भोगते हुए कई वर्ष गुजर गए हैं और अर्जुन जीवन भर लगातार संघर्ष करता रहा है और निरंतर अनेकों कठिनाइयों से जूझता रहा है । जो राजसुख भोगता है और जिसे हर तरह की सुविधा मिलती रहती है वह अपनी शक्ति और सामर्थ्य खो बैठता है और लगातार संघर्ष करने वाले को निरंतर शक्ति और नित नई ऊर्जा प्राप्त होती रहती है ।

इतिहास इस बात का साक्षी है कि कठिनाइयों के कीचड में ही सफलता का कमल खिलता है इसी तरह का हाल अर्जुन का भी है । जिसका जीवन प्रतिरोधों और चुनौतियों से घिरा रहता है वह लगातार प्रखर होता जाता है । जिस दिन व्यक्ति की प्रतिकूलताएँ समाप्त हो जाती हैं और वह प्रमाद ग्रस्त होने लगता है । महर्षि अरविंद जी कहते थे कि दुःख भगवान के हाथों का हथौड़ा है उसी के माध्यम से मनुष्य का जीवन संवरता है । जितना आप जीवन में लगातार संघर्ष करेंगें उतनी ही ज्यादा आपको सफलता मिलेगी इसमें कोई संदेह नहीं है ।  

26.4.20

सच्चे संत/महात्मा वैभव का नहीं निर्मल भावनाओं का सम्मान करते हैं ...

एक गाँव में एक करोड़पति व्यापारी था उसे अपने धन पर काफी घमंड था और वह हमेशा गरीब लोगों का शोषण करता था और उन्हें खूब सताता था । एक बार व्यापारी के गांव में एक बड़े संत महात्मा आयें और वे एक गरीब की कुटिया में जाकर ठहर गये ।

जब व्यापारी ने सुना कि उसके गाँव में एक संत महात्मा आयें हैं तो वह उनके दर्शन करने गया और वहाँ जाकर उसने देखा कि महात्मा जी गरीब के घर में रूखी सूखी रोटी खा रहे हैं । यह देख व्यापारी ने महात्मा जी से कहा कि आप यहाँ रुखा सूखा भोजन कर रहे हैं मेरे गांव में जो भी संत महात्मा आते हैं वे मेरे ही घर में रुकते हैं और मेरे घर में किसी भी तरह की कमी नहीं हैं और आपसे निवेदन हैं कि आप मेरे यहाँ ठहरें और विश्राम करें ।

महात्मा जी ने कहा - यह भोजन अत्यंत रुचिकर है और मैं तो मेहनत की कमाई से कमाया गया अमृत खा रहा हूँ और जो आनंद इस रूखे सूखे भोजन करने में मुझे मिल रहा है वह स्वादिष्ट पकवानों में भी नहीं मिलेगा । महात्मा जी के वचनों को सुन कर व्यापारी को यह ज्ञान हो गया कि सच्चा संत महात्मा वे ही होते हैं जो वैभव का नहीं व्यक्ति की निर्मल भावनाओं का सम्मान करते हैं ।